भाग २

 

खंड १

 

कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वय

 

 


दो प्रकृतियाँ

 

      गीता के प्रथम छ : अध्यायों पर उसकी शिक्षाओं के एक कांड के रूप में विवेचना की गयी है, यह कांड गीता की साधना और ज्ञान का प्राथमिक आधार है; शेष बारह अध्याय भी इसी प्रकार आपस में सम्बन्धित दो कांडों के तौर पर समझे जा सकते हैं,  इनमें उस पहले आधार के ऊपर ही गीता की शेष शिक्षा का विस्तार किया गया है । सातवें से बारहवें तक के अध्यायों में भगवान् के स्वरूप का व्यापक तात्विक निरूपण है और इसके आधार पर ज्ञान और भक्ति में संबंध स्थापित कर दोनों का समन्वय साधा गया है जैसा कि प्रथम छ: अध्यायों में कर्म और ज्ञान में किया गया था । ग्यारहवें अध्याय का विश्वपुरुष-दर्शन इस समन्वय को एक शक्तिशाली रूप प्रदान करता है और इसे कर्म और जीवन के साथ स्पष्ट रूप से जोड़ देता है । इस प्रकार सब चीजें फिर से एक अधिक प्रभाव के साथ अर्जुन के मूल प्रश्न पर आती हैं जिसके चारों ओर, और जिसे सुलझाने के लिए यह सब रचना है । इसके बाद गीता प्रकृति और पुरुष का भेद दिखाकर त्रिगुण के कर्म और निस्त्रैगुण्य की अवस्था के बारे में तथा निष्काम कर्मों की उस ज्ञान में परिसमाप्ति, जहाँ वह भक्ति के साथ एक हो जाता है, के बारे में अपने सिद्धान्त स्पष्ट करतीं है । इस प्रकार ज्ञान, कर्म और भक्ति में एकता साधित कर गीता उस परम वचन की ओर मुड़ती है जो सर्वभूत महेश्वर के प्रति आत्मसमर्पण के संबंध में उसका गुह्यतम वचन है ।

     गीता के इस द्वितीय कांड की निरूपण-शैली अबतक की शैली की अपेक्षा अधिक संक्षिप्त और सरल है । प्रथम छ: अध्यायों में ऐसे स्पष्ट लक्षण नहीं दिये गये हैं जिनसे आधारभूत सत्य की पहचान हो; जहाँ जो कठिनाइयाँ पेश आयी हैं वहाँ उनका चलते-चलाते समाधान कर दिया गया है; विवेचन का क्रम कुछ कठिन है और कितनी ही उलझनों और पुनरावृत्तियों में से होकर चलता रहा है; ऐसा बहुत कुछ है जो कथन में समाया तो है पर जिसका अभिप्राय स्पष्ट नहीं हो पाया है । अब यहाँसे क्षेत्र कुछ अधिक साफ है, विवेचन अधिक

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१.. अ० ७, श्लोक १-१४

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संक्षिप्त और अपने अभिप्राय के प्रति स्पष्ट है । परन्तु इस संक्षेप के कारण ही हमें बराबर सावधानी के साथ आगे बढ़ना होगा जिससे कहीं कोई भूल न हो जाय, कहीं वास्तविक अभिप्राय छूट न जाय । कारण, यहाँ हम आंतरिक और आध्यात्मिक अनुभूति की सुरक्षित भूमि पर स्थिर होकर नहीं चल रहे हैं, बल्कि यहाँ हमें आध्यात्मिक और प्राय: विश्वातीत सत्य के बौद्धिक प्रतिपादन को देखना-समझना है । दार्शनिक विषय के प्रतिपादन में यह कठिनाई और अनिश्चितता सदा रहती है कि बात तो कहनी होती है नि:सीम की, पर उसे बुद्धि की पकड़ में आने के लिए सीमित करके कहना होता है; यह एक ऐसा प्रयास है जो करना तो पड़ता है पर जो कभी पूर्ण रूप से संतोष-जनक नहीं होता, वह एकदम आखिरी या पूर्ण नहीं हो सकता । परम आध्यात्मिक सत्य को जीवन में उतारा जा सकता है, उसका साक्षात्कार पाया जा सकता है, पर उसका वर्णन केवल अंशत: ही हो सकता है । उपनिषदों की पद्धति और भाषा इससे अधिक गभीर है, उसमें प्रतीक और रूपक का खुलकर उपयोग किया गया है, जो कुछ कहा गया है वह अंतर्ज्ञान का ही स्वच्छंद प्रवाह है जिसमें बौद्धिक वाणी की कठोर निश्चितता का बंधन टूट गया है और शब्दों के गर्भित अर्थों में से संकेत का एक अपार तरंग-प्रवाह निकल आया है । अध्यात्म के इस क्षेत्न में यही पद्धति और भाषा ठीक होती है । परन्तु गीता इसका अवलंबन नहीं कर सकती, क्योंकि इसे बौद्धिक समस्या का समाधान करना है, ऐसे मन को समझाना है जिसमें तर्क-बुद्धि--जिसके सामने हम अपनी सब प्रेरणाओं और भाव-तरंगों के विरोध रखकर उनपर उसका फैसला चाहते हैं वह तर्क-बुद्धि--आप ही अपने विरुद्ध हो रही है और किसी प्रकार का निश्चय करने में असमर्थ है । तर्क-बुद्धि को एक ऐसे सत्य की ओर ले जाना है जो उसके परे है, पर उसे वहाँ उसीके अपने साधन और अपनी पद्धति से ले जाना है । तर्क-बुद्धि के सामने आत्मानुभव का यदि कोई ऐसा समाधान रखा जाय जिसके तथ्यों के विषय में उसे स्वयं कुछ भी अनुभव न हो तो उसकी सत्यता पर उसे तबतक विश्वास नहीं होगा जबतक उस समाधान के मूल में विद्यमान आत्मिक सत्यों का बौद्धिक निरूपण करके उसे सन्तुष्ट न कर दिया जाय ।

    अबतक प्रतिपाद्य विषय की पुष्टि में जो सत्य उसके सामने रखे गये है वे पहले से ही उसके जाने हुए हैं और विषय की शुरुआत के लिए ठीक हैं । सबसे पहले अक्षर पुरुष और प्रकृतिस्थ पुरुष, इन दोनों में भेद किया गया है । यह भेद यह दिखलाने के लिए किया गया है कि प्रकृतिस्थ पुरुष जबतक अहंकार से होनेवाले कर्म के अन्दर बँधा रहता है, वह अनिवार्यत: त्निगुण का क्रियाओं के अधीन रहता है और

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उसकी देहस्थिति बुद्धि, मन, प्राण और इन्द्रियों का सारा कर्म और सारी कर्म-पद्धति त्रिगुण के अस्थिर खेल के सिवा और कुछ नहीं होती । और, इस चक्कर के अन्दर इसका कोई समाधान नहीं है । अत: त्निगुणमयी प्रकृति के इस चक्कर से परे उस एक अक्षर पुरुष और शान्त ब्रह्म की ओर ऊपर उठकर समाधान ढूँढ़ना होगा, क्योंकि तभी कोई अहंकार और इच्छा-चालित कर्म से जो कि कठिनाई की सारी जड़ है, ऊपर उठ सकता है । परन्तु केवल इतनेसे तो अकर्म की ही प्राप्ति होती है, क्योंकि प्रकृति के परे कर्म का कोई करण नहीं, न कर्म का कोई कारण या निर्द्धारण ही है--अक्षर पुरुष तो अकर्मशील है, सब पदार्थों, कार्यों और घटनाओं में तटस्थ और सम है । इसलिए यहाँ योगशास्त्र में प्रति-पादित ईश्वर का यह भाव लाया गया है कि ईश्वर कर्मों और यज्ञों के भोक्ता प्रभु हैं, और यहाँ इसका संकेत मात्र किया गया है, यह स्पष्ट नहीं कहा गया कि ये ईश्वर अक्षर ब्रह्म के भी परे हैं और इन्हीं में विश्व-लीला का गभीर रहस्य निहित है । इसलिए अक्षर पुरुष से होकर इनकी ओर ऊपर बढ़ने से हम अपने कर्मों से आध्यात्मिक मुक्ति भी पा सकते हैं और साथ ही प्रकृति के कर्मों में भी भाग लेते रह सकते हैं । पर अभी यह नहीं बताया गया कि ये परम पुरुष जो यहाँ भगवान् गुरु और कर्म-रथ के सारथी-रूप में अवतरित हैं, कौन हैं और अक्षर पुरुष तथा प्रकृतिस्थ व्यष्टि-पुरुष के साथ इनके क्या संबंध हैं । न यह बात ही अभी स्पष्ट हुई है कि किस प्रकार भगवान् से आनेवाली कर्म-प्रेरणा या संकल्प त्निगुणात्मिंका प्रकृति की ही इच्छा नहीं हो सकती । यदि वह वही इच्छा हो तो इसका अनुसरण करने-वाला जीव, अपने आत्म-भाव में न सही, पर अपने कर्म में तो त्रिगुण के बंधन से नहीं बच सकता; और, यदि यही बात है तो यह प्रतिज्ञात मुक्ति मायामय या अधूरी ही रही । ऐसा मालूम होता है कि यह संकल्प सत्ता के कार्यवाहक अंश का एक पहलू है, प्रकृति की मूल शक्ति और कार्यकारिणी वृत्ति है; इसे शक्ति, प्रकृति कहते हैं । तो क्या ऐसी भी कोई प्रकृति है जो त्निगुणात्मिका प्रकृति के परे है ? क्या कोई ऐसी भी सृष्टि-शक्ति, कोई ऐसी संकल्प-शक्ति एवं कर्म-शक्ति है जो अहंकार, काम, मन, इन्द्रिय-समूह, बुद्धि और प्राणावेग से भिन्न है ?

      इसलिए ऐसी संदिग्ध अवस्था में अब जो कुछ करना है वह यही है कि वह ज्ञान, जिसकी बुनियाद पर भागवत कर्म किया जायगा, और अधिक पूर्णता के साथ बता दिया जाय । और, वह ज्ञान उन भगवान् के स्वरूप का ही समग्र और अखण्ड ज्ञान हो सकता है जो भगवान् कि संपूर्ण कर्म के मूल कारण हैं और जिनकी सत्ता के अन्दर कर्मयोगी ज्ञान के द्वारा मुक्त हो जाता है, क्योंकि तब

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वह उस मुक्त आत्मा को जान लेता है जिसमें से यह अखिल कर्म-प्रवाह निकलता है और उसके मुक्त स्वरूप का भागी होता है । इसके अतिरिक्त, उस ज्ञान से वह प्रकाश मिलेगा जिससे गीता के प्रथम भाग के उपसंहार में जो बात कही गयी है उसकी यथार्थता सिद्ध होगी । उसे आध्यात्मिक चैतन्य और कर्म के सब हेतुओं और शक्तियों के ऊपर, भक्ति की श्रेष्ठता स्थापित करनी होगी; वह ज्ञान सब प्राणियों के उन परमेश्वर का ज्ञान होगा जिनके प्रति जीव उस पूर्ण आत्म-समर्पण के साथ अपने-आपको उत्सर्ग कर सकता है जो प्रेम और भक्ति की पराकाष्ठा है । सातवें अध्याय के प्रारंभ के श्लोकों में भगवान् इसीका आरंभ करते हैं । ग्रंथ के शेष अध्यायों में फिर इसीकी परिणति हुई है । भगवान् कहते हैं, ''मुझमें अपने मन को आसक्त करके और मुझे अपना आश्रय (जीव की चेतन सत्ता और कर्म का संपूर्ण आधार, निवास और शरणस्थान ) बनाकर योग-साधन करने से किस प्रकार तुम मुझे नि:संशय, ''समग्रं माम्'', समग्र रूप से जानोगे वह सुनो । मैं ''अशेषत:'', बिना कोई बात छोड़े (क्योंकि छोड़ने से फिर संशय के लिए अवकास रहेगा ), तुमसे वह ज्ञान विज्ञान-सहित कहूँगा जिसे जान लेने पर जानने की और कोई बात बाकी नहीं रह जायगी ।''  कहने का अभिप्राय यह है कि ''वासुदेव: सर्वमितिं"  अर्थात् सब कुछ भगवान् हैं और इसलिए यदि उन्हें उनकी सब शक्तियों और तत्वों के साथ समग्र रूप से जान लिया जाय तो सब कुछ जान लिया जाता है, केवल विशुद्ध आत्मा ही नहीं, बल्कि जगत्, कर्म और प्रकृति भी । तब जानने की और कोई चीज नही रह जाती, क्योंकि सब कुछ भगवान् की ही सत्ता है । हमारी दृष्टि इस तरह समग्र न होने के कारण तथा विभाजक मन-बुद्धि और अहंकारगत पृथक्-भाव के आधार-रूप होने के कारण, हमारी बुद्धि में जगत् के विषयों की जो प्रतीति होती है वह अज्ञान है । हमें इस मन-बुद्धि और अहंभाववाली दृष्टि से निकलकर वास्तविक एकत्व-साधक ज्ञान में प्रवेश करना होगा । उस ज्ञान के दो पहलू हैं, एक स्वरूप- ज्ञान जिसे केवल ज्ञान कहते हैं और दूसरा सर्वग्राही ज्ञान जिसे विज्ञान कहते हैं । एक परमात्म-स्वरूप का अपरोक्ष अनुभव है और दूसरा उसकी सत्ता के विभिन्न तत्वों, अर्थात् प्रकृति, पुरुष तथा अन्य सब तत्वों का यथावत् स्वानुभूत ज्ञान है जिसके द्वारा भूतमात्र अपने मुल भागवत स्वरूप में तथा अपनी प्रकृति के परम सत्य में जाने जा सकते हैं । वह समग्र ज्ञान, गीता कहती है कि, बड़ी दुर्लभ और कठिन वस्तु है, ''सहस्रों मनुष्यों में कोई एकाध ही सिद्धि पाने. का प्रयत्न करता है और ऐसा प्रयत्न करके सिद्धि

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१. ७-२

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पानेवालों में विरला ही कोई मुझे मेरे स्वरूप के सब तत्वों के साथ 'तत्वतः' जानता है ।''

     अब उपक्रम के तौर पर तथा इस समग्र ज्ञान को सुप्रतिष्ठित करने योग्य मनोभूमि का निर्माण करने के लिए भगवान् वह गभीर और महत् भेद करते हैं जो गीता के संपूर्ण योग का व्यावहारिक आधार है, यह भेद है दो प्रकृतियों का, एक प्रकृति है प्राकृत और दूसरी आध्यात्मिक । '' भौतिक सृष्टि के मूलभूत पंचतत्व और मन, बुद्धि, अहंकार-यह मेरी अष्टधा विभक्त प्रकृति है । पर इससे भिन्न मेरी जो दूसरी, परा प्रकृति है उसे जान लो जो जीव बना करती है और जो इस जगत् को धारण करती है ।''  यहाँ गीता का वह प्रथम नवीन दार्शनिक सिद्धान्त आया जिससे, सांख्य-शास्त्र के मन्तव्यों से आरंभ करके, वह उनके आगे बढ़ती है और सांख्यों के शब्दों को रखती हुई और उन्हें विस्तृत करती हुई उनमें वेदान्त का अर्थ भर देती है । प्रकृति को अष्टधा कहा गया है जिसमें पाँच महाभूत-भौतिक सृष्टि के मूलभूत पंचतत्व जिनके स्थूल नाम पृथ्वी, अप, तेज, वायु और आकाश हैं,--अपनी पंच ज्ञानेन्द्रियों और पंच कर्मेन्द्रियों सहित मन-बुद्धि और अहंकार, यें आठ अंग हैं, यही सांख्यों का प्रकृति वर्णन है । सांख्य-शास्त्र यहीं रुक जाता है और इसी रुकाव के कारण उसे प्रकृति और पुरुष के बीच एक ऐसा भेद करना पड़ता है जो दोनोंको मिलने नहीं देता और इस कारण दोनोंको एक-दूसरेसे सर्वथा भिन्न दो मूल सत्ताएँ ही मान लेना पड़ता है । गीता को भी, यदि वह यहीं रुक जाती तो, पुरुष और विश्व-प्रकृति के बीच यही अपरिहार्य विच्छेद स्थापित करना पड़ता और तब यह विश्व-प्रकृति त्निगुणात्मिका माया मात्र और यह सारा विश्व-प्रपंच उस माया का ही परिणाम सा रह जाता;  इसके सिवाय प्रकृति और उसके इस विश्व-प्रपंच का और कुछ भी अर्थ न होता । पर बात इतनी ही नहीं है, और कुछ है, एक पराप्रकृति भी है, एक आत्मा की प्रकृति भी है, ''पराप्रकृतिर्में'' । भगवान् की एक पर-प्रकृति है जो इस विश्व के अस्तित्व का यथार्थ मूल, इसकी मूलभूत सृष्टि-शक्ति और कर्म-शक्ति है; और दूसरी नीचे की अज्ञानमयी प्रकृति इसीसे उत्पन्न हुई है और इसीकी अंधकारपूर्ण छाया है । इस पराप्रकृति के अन्दर पुरुष और प्रकृति एक हैं । प्रकृति वहाँ पुरुष की संकल्प-शक्ति और कर्तृ-शक्ति है, पुरुष की स्वयं अभिव्यक्त होने की क्रिया है,--कोई पृथक् वस्तु नहीं, प्रत्युत स्वयं सशक्तिक पुरुष है ।

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१. ७-३

२. ७,४-५

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यह पराप्रकृति केवल विश्व के कर्मों में अंतःस्थित भागवत शक्ति की उपस्थिति ही नहीं है । क्योंकि यदि ऐसा होता तो वह उस सर्वव्यापक आत्मा की ही निष्क्रिष्य उपस्थिति होती जो आत्मा सब पदार्थों में है या जिसके अन्दर सब पदार्थ हैं और जिसकी सत्ता से विश्वकर्म होता है पर जो स्वयं कर्ता नहीं है । यह पराप्रकृति फिर सांख्यों का वह 'अव्यक्त' भी नहीं है जो व्यक्त सक्रिय अष्टविध प्रकृति की आदि अव्यक्त बीज-स्थिति है जिसे उत्पादक मुल प्रकृति कहते हैं और जिसमें से उसके सब करण और कर्म-शक्तियाँ उत्पन्न होती हैं । और, न वेदान्त-शास्त्र के अनुसार अव्यक्त का अर्थ करके यह कहा जा सकता है कि यह पराप्रकृति अव्यक्त ब्रह्म या आत्मा के अन्दर अव्यक्त रूप से रहनेवाली वह शक्ति है जिसमें से विश्व उत्पन्न होता है और जिसमें इसका लय होता है । पराप्रकृति यह है, पर यही नहीं, इससे भी अधिक बहुत कुछ है; यह तो उसकी केवल एक आत्म- स्थिति है । पराप्रकृति परम पुरुष की समग्र चिच्छक्ति है जो जीव और जगत् के पीछे है । यह अक्षर पुरुष के अन्दर आत्मा में निमज्जित रहती है; यह वहाँ भी है, पर निवृत्ति में, कर्म से पीछे हटी हुई; यही क्षर पुरुष और विश्व में बहिर्भूत होकर कर्म में प्रवृत्त होती है, प्रवृत्ति में आती है |  यह प्रवृत्ति में अपनी सशक्तिक सत्ता के द्वारा ब्रह्म में सर्वभूतों को उत्पन्न करती और उन भूतों में उनके उस मूल आध्यात्मिक प्रकृति-रूप से प्रकट होती है जो उनकी बाह्यांतर प्राकृत क्रीड़ा का आधारभूत चिरंतन सत्य है । यही वह मूलभूत भाव और शक्ति है जिसे 'स्वभाव'  कहते हैं जो सबके स्वयं होने--प्राकृत रूप में आने का स्वगत तत्व है, सब की प्राकृत सत्ता का स्वांतःस्थित तत्व और ईश्वरी शक्ति है । त्रिगुण की साम्यावस्था इस पराप्रकृति-तत्व से उत्पन्न होनेवाली एक परिमेय एवं सर्वथा गौण क्रीड़ामात्र है । अपरा प्रकृति का यह सारा नामरूपात्मक कर्म, यह अखिल मनोमय, इन्द्रियगत और बौद्धिक व्यापार केवल एक बाह्य प्राकृत दृश्य है जो उसी आध्यात्मिक शक्ति और 'स्वभाव'  के कारण संभव होता है,  उसीसे इसकी उत्पत्ति है और उसीमें इसका निवास है, उसीसे यह है । यदि हम केवल इस बाह्य प्रकृति में ही रहें और हमारे ऊपर इसके जो संस्कार होते हैं उन्हींसे हम जगत् को समझना चाहें तो हम कदापि अपने कर्ममय अस्तित्व के मूल वास्तविक तत्व को नहीं पा सकते । वास्तविक तत्व यही आध्यात्मिक शक्ति, यही भागवत स्वभाव, यही मूलगत आत्मभाव है जो सब पदार्थों के अन्दर है या यह कहिए कि जिसके अन्दर सब पदार्थ हैं और जिससे सब पदार्थ अपनी शक्तियाँ और कर्मों के बीज ग्रहण करते हैं । उस सत्तत्व, शक्ति और भाव को प्राप्त होने से ही हम अपने भूतभाव का असली धर्म और अपने जीवन का भागवत तत्व पा सकेंगे,

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केवल अज्ञान में उसकी प्रक्रियामात्न ही नहीं, बल्कि ज्ञान के अन्दर उसका मूल और विधान भी पा सकेंगे ।

    यहाँ गीता का अभिप्राय ऐसी भाषा में व्यक्त किया गया है जो आजकल की विचार-पद्धति के अनुसार है; जब हम परा प्रकृति का वर्णन करनेवाले उसी के शब्दों को देखें तो यह दिखायी देगा कि वास्तव में उसका यही अभिप्राय है । क्योंकि, पहले भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह दूसरी उच्चतर प्रकृति मेरी परा प्रकृति है, ''प्रकृतिं मे पराम् ।''  और यहाँ जो ''मैं''  है वह पुरुषोत्तम अर्थात् परमपुरुष, परमात्मा, विश्वातीत और विश्वव्यापी आत्मा का वाचक है । परमात्मा की मूल सनातन प्रकृति और उनकी परात्पर मूल कारण-शक्ति ही परा प्रकृति से अभिप्रेत है । अपनी प्रकृति की क्रियाशील शक्ति की दृष्टि से जगदुत्पत्ति की बात कहते हुए भगवान् का यह स्पष्ट वचन है कि, ''यह सब प्राणियों की योनि है--एतद्योनीनि भूतानि ।''  इसी श्लोक के दूसरे चरण में उसी बात को आरंभिक आत्मा की दृष्टि से कहते हैं ''मैं ही संपूर्ण जगत् की उत्पत्ति और प्रलय हूँ;  मेरे परे और कुछ भी नहीं है ।''   यहाँ इस तरह परम पुरुष पुरुषोत्तम और परा प्रकृति एकीभूत हैं; वे यहाँ एक ही सत्तत्व की ओर देखने के दो भिन्न प्रकारों के रूप में रखे गये हैं । क्योंकि जब श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस जगत् की उत्पत्ति और प्रलय मैं हूँ तब यह स्पष्ट है कि इसका मतलब परा प्रकृति अर्थात् उनके स्वभाव से है जो उत्पत्ति और प्रलय दोनों है । यह आत्मा ही अपनी अनन्त चेतना में परम पुरुष है और परा प्रकृति उनकी स्वभावगत अनन्त शक्ति या संकल्प है--यह अपने अन्दर निहित भागवत शक्ति और परम भाग-वत कर्म के साथ अनन्त चेतना ही है । परमात्मा में से इसी चिच्छक्ति का आविर्भूत होना उत्पत्ति है, "परा प्रकृतिर्जीयभूता", क्षर जगत् में उसकी यह प्रवृत्ति है और परमात्मा की अक्षर सत्ता और स्वात्मलीन शक्ति के अन्दर इस चिच्छक्ति का अन्तर्वलय होने से कर्म की निवृत्ति ही प्रलय है । परा प्रकृति से यही मूल अभिप्राय है ।

     इस प्रकार परा प्रकृति स्वयंभू परम पुरुष की अनन्त कालातीत सचेतन शक्ति है जिसमें से विश्व के सब प्राणी आविर्भूत होते और कालातीत सत्ता से काल के अन्दर आते हैं । पर विश्व में इस विविध संभूति को आत्मसत्ता का आधार दिलाने के लिए स्वयं परा प्रकृति जीवरूप धारण करती है । इसी बात को दूसरी तरह से यों कह सकते हैं कि पुरुषोत्तम का बहुविध सनातन आत्मस्वरूप ही विश्व के इन सब रूपों में व्यष्टि-पुरुष होकर प्रकट होता है । सभी प्राणी

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१.  ७, ६-७

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उसी एक अविभेद्य परमात्मा की सत्ता से व्याप्त हैं; सबकी व्यष्टि-सत्ता, सबके कर्म और रूप उसी एक पुरुष की सनातन अनेकता के आधार पर खड़े हैं । हम समझने में कहीं यह भूल न कर बैठें कि यह परा प्रकृति काल में अभिव्यक्त जीव-मात्र है और कुछ नहीं अथवा यह कि यह केवल संभूति की ही प्रकृति है और आत्म-सत्ता की नहीं :  परम पुरुष की परा प्रकृति का इतना ही स्वरूप नहीं हो सकता । काल में भी यह परा प्रकृति इससे कुछ अधिक है; यदि ऐसा न हो तो विश्व-रूप से इसका यही सत्य हुआ कि जगत् में अनेकता की ही प्रकृति है और यहाँ एकत्व-धर्मवाली प्रकृति है ही नहीं । परन्तु गीता का यह अभिप्राय नहीं है--गीता यह नहीं कहती कि परा प्रकृति स्वयं ही जीव है, ''जीवात्मकाम्", बल्कि यह कहती है कि वह जीव बन गयी है, "जीवभूताम्"  ;  इस जीवभूता शब्द में ही यह ध्वनि है कि अपने इस बाह्यत: प्रकट जीवरूप के पीछे यह परा प्रकृति इससे भिन्न और कोई बड़ी चीज है, यह एकमेवाद्वितीय परम पुरुष की निज प्रकृति है । गीता ने आगे चलकर बतलाया है कि यह जीव ईश्वर है, पर ईश्वर है उनकी आंशिक अभिव्यक्ति के रूप में, ''ममैवांशः'';  ब्रह्माण्ड अथवा अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों के सब जीव मिलकर भी अपने अभिव्यक्ति-रूप में समग्र भगवान् नहीं हो सकते, सब मिलकर उस अनन्त एकमेवाद्वितीय के अंश का आविर्भाव ही हैं । उनके अन्दर 'एक' और अविभक्त ब्रह्म मानों विभक्त की तरह रहता है, ''अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।''   यह एकत्व महत्तर सत्य है, अनेकत्व उससे लघुतर सत्य है; यद्यपि हैं दोनों सत्य ही, उनमें से कोई भी मिथ्या-माया नहीं है ।

    इस अध्यात्म-प्रकृति का एकत्व ही इस जगत् को धारण किये रहता है, "ययेदं धार्यते जगत्;'' सब भूतभावों के साथ इस जगत् की उत्पत्ति उसीसे होती है, ''एतद्योनिनी भूतानि सर्वाणि'', और उसीमें, प्रलयकाल में सारे जगत् और उनके प्राणियों का लय होता है, ''अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा ।''   परन्तु इस दृश्य जगत्में, जो आत्मा से प्रकट होता, उसी के सहारे कर्म करता और प्रलयकाल में कर्म से निवृत्त होता है, वह जीव ही नानात्व का आधार है; उसे, जिसको हम यहाँ अनुभव करते हैं हम चाहे तो बहु पुरुष कह सकते हैं अथवा नानात्व का अंतरात्मा भी कह सकते हैं । वह अपने स्वरूप से भगवान् के साथ एक है, भिन्न है केवल अपने स्वरूप की शक्ति से--इस अर्थ में भिन्न नहीं कि वह एकदम वही शक्ति नहीं है, बल्कि इस अर्थ में कि वह केवल उसी एक शक्ति के लिए आंशिक बहुविध व्यष्टिभूत कर्म में आधार का काम

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१. १३, १६

२. ७, ६

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करता है । इसलिए सभी पदार्थ आदि में, अंत में और अपने स्थितिकाल में तत्वत: आत्मा या ब्रह्म ही हैं । सबका मूल स्वभाव आत्मभाव ही है, केवल नानात्व के निम्न भाव में वे कुछ दूसरी चीज अर्थात् शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, अहंकार और इन्द्रिय-रूप प्रकृति देख पड़ते हैं । पर ये बाह्य गौण व्युत्पन्न रूप हैं1 हमारे स्वभाव और स्वसत्ता के विशुद्ध मूल स्वरूप नहीं ।

     इस तरह हमें परमात्मा की परा प्रकृति से अपनी विश्वातीत सत्ता का मूलभूत सत्य और शक्ति तथा विश्वलीला का आध्यात्मिक आधार दोनों ही मिलते हैं । परन्तु उस परा प्रकृति और इस अपरा प्रकृति को जोड़नेवाली बीच की कड़ी कहाँ है ? मेरे अन्दर, श्रीकृष्ण कहते हैं कि, यह सब, यहां जो कुछ है सब, ''सर्वमिदं''  अर्थात् क्षर जगत् की ये सब वस्तुएँ जिन्हें उपनिषदों में प्रायः ''सर्वमिदं'' पद से कहा गया है-सूत्र में मणियों के सदृश पिरोयी हुई हैं । परन्तु यह केवल एक उपमा है जो एक हदतक ही काम दे सकती है, उसके आगे नहीं; क्योंकि यह सूत्र मणियों का केवल परस्पर-संबंध ही जोड़े रहता है, इसके साथ मणियों का, सिवा इसके कि वह उनका परस्पर-संबंध-सूत्र है, उनकी एकता इसपर आश्रित रहती है, और कोई नाता नहीं । इसलिए हम उस उपमेय की ओर ही चलें जिसकी यह उपमा है । वास्तव में परमात्मा की परा प्रकृति अर्थात् परमात्मा की अनन्त चेतना-शक्ति ही, जो आत्मविद्, सर्वविद् और सर्वज्ञ है, इन सब गोचर पदार्थों को परस्पर संबद्ध रखती, उनके अन्दर व्याप्त होती, उनमें निवास करती, उन्हें धारण करती और उन सबको अपनी अभिव्यक्ति की व्यवस्था के अन्दर बुन लेती है । यही एक परा शक्ति केवल सबके अन्दर रहनेवाली एक आत्मा के रूप में ही नहीं बल्कि प्रत्येक प्राणी और पदार्थ के अन्दर जीव-रूप से, व्यष्टि-पुरुष-सत्ता के रूप से भी प्रकट होती है; यही प्रकृति के संपूर्ण त्रैगुष्य के बीज-तत्व-रूप से भी प्रकट होती है । अतएव प्रकृति के प्रत्येक पदार्थ के पीछे ये ही छिपी हुई अध्यात्म-शक्तियाँ हैं । तैगुण्यु का यह परम बीजतत्व त्रिगुण का कर्म नहीं है, त्निगुण-कर्म तो गुणों का ही व्यापार है, उनका आध्यात्मिक तत्व नहीं । वह बीज-तत्व अंतःस्थित आत्मतत्व है जो एक है, पर फिर भी इन बाह्य नाना नाम-रूपों की वैचित्यमयी अंत:शक्ति भी है । यह संभूति का, भगवान् के क्षर भाव का मूलभूत सत्तत्व है और यही सत्तत्व अपने इन सब नाम-रूपों को धारण करता है और इसी के अन्दर अहंकार, प्राण और शरीर के केवल बाह्य अस्थिर भाव हैं--''सात्विका भाव राजसास्तामसाश्च ।''   परन्तु यह बीजभूत तत्व स्वभाव है-भूतभावकी आदि सनातन अंत:शक्ति है । प्रत्येक जीव के भूतभाव का मूल विधान करनेवाला यही स्वभाव है । यही अंत:शक्ति

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है; प्रकृति के संपूर्ण कर्म का यही बीज और यही उसके विकास का कारण है । प्रत्येक प्राणी के अन्दर यह तत्व छिपा हुआ है, यह परात्पर भगवान् के ही आत्माविर्भाव से, ''मदभाव'' से निकलता और उससे सम्बद्ध रहता है । भगवान् के इस "मदभाव'' का स्वभाव के साथ और स्वभाव का बाह्य भूतभावों के साथ अर्थात् भगवान् की परा प्रकृति का व्यष्टिपुरुष की आत्मप्रकृति के साथ और इस विशुद्ध मूल आत्मप्रकृति का त्निगुणात्मिका प्रकृति की मिश्रित और द्वन्द्वमय क्रीड़ा के साथ जो सम्बन्ध है उसी में उस परा शक्ति और इस अपरा प्रकृति के बीच की लड़ी मिलती है । अपरा प्रकृति की विकृत शक्तियाँ और उसकी संप-दाएँ उसे परा प्रकृति की परम शक्तियों और सम्पदाओं से ही प्राप्त हैं और इसलिए अपरा प्रकृति की शक्तियों और संपदाओं को अपना मूल और वास्तविक स्वरूप तथा अपने सब कर्मों का स्वभावजनित मूल धर्म जानने के लिए परा शक्ति की शक्तियों और संपदाओं के समीप लौट जाना होगा । इसी प्रकार यह जीव, जो यहाँ इस त्त्रिगुणात्मिका प्रकृति की सीमित, दीन और निम्नतर क्रीड़ा के अन्दर निमग्न है, यदि इससे निकलकर अपने पूर्ण भागवत स्वरूप को प्राप्त होना चाहे तो, उसे अपने स्वभाव के मूलभूत गुण के विशुद्ध कर्म का आश्रय लेकर अपने स्वरूप के उस परम धर्म में लौट आना होगा जिसमें वह अपनी दिव्य भागवत प्रकृति के संकल्प, शक्ति, सक्रिय तत्व और परम कर्मभाव का पता पा सकता है ।

     यह बात इसके बाद वाले श्लोकों से ही स्पष्ट हो जाती है जिसमें कई उदाहरण देकर यह बतलाया गया है कि किस प्रकार भगवान् अपनी परा प्रकृति की शक्ति के साथ इस विश्व के चेतन तथा अचेतन कहे जानेवाले प्राणियों में प्रकट होते और कर्म करते हैं । इन उदाहरणों को काव्य की भाषा में छंद के कारण जिस अस्तव्यस्त से रूप में रखा गया है उससे इन्हें हम छांटकर अलग निकाल सकते हैं और उनके ठीक दार्शनिक क्रम में ला सकते हैं । प्रथमत:,  भागवत शक्ति और सत्ता पंचमहाभूतों में से होकर कर्म करती है--''मैं जल में रस हूँ, आकाश में शब्द, पृथ्वी में गंध और अग्नि में तेज हूँ,''  और इसी की पूर्णता के लिए यह कहा जा सकता है कि वायु में ''मैं स्पर्श हूँ'' । अर्थात् भगवान् ही अपनी परा प्रकृति के रूप से इन सब विभिन्न इन्द्रिय-विषयों के मूल में स्थित शक्ति हैं और प्राचीन सांख्य सिद्धान्त के अनुसार पंचमहाभूत--आकाशीय, तैजस, वैद्युतिक तथा वायवीय, जलीय और अन्य मूलभूत जड़रूप--इन्हीं इन्द्रिय-विषयों के भौतिक उपकरण है । ये पंचमहाभूत अपरा प्रकृति के मात्नात्मक या भौतिक अंग हैं और ये ही सब भौतिक रूपों के उपादान हैं । पंचतन्मात्नाएँ-रस,

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१. ७-८

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स्पर्श, गंधादि-अपरा प्रकृति के गुणात्मक अंग हैं । ये पंचतन्मात्राएँ सूक्ष्म शक्तियाँ हैं जिनकी क्रिया के द्वारा ही इन्द्रिगत चैतन्य का स्थूल भौतिक रूपों के साथ सम्बन्ध स्थापित होता है--भौतिक सृष्टि के संपूर्ण ज्ञान के मूल में ये ही शक्तियाँ हैं । भौतिक दृष्टि से जड़ ही सत् पदार्थ है और इन्द्रिय-विषय उसी में से निकलते हैं; परन्तु अध्यात्म-दृष्टि से बात इससे उलटी है । जड़ सृष्टि और जड़ उपकरण स्वयं ही किसी अन्य सत्ता से निकली हुई शक्तियों हैं और मूलत: केवल ऐसी स्थूल पद्धतियाँ या अवस्थाएँ हैं जिनमें जगत् के भीतर प्रकृति के त्रिगुण के कर्म जीव के इन्द्रिय-चैतन्य के सामने प्रकट होते हैं । एकमात्र मूल सनातन सत्पदार्थ प्रकृति अर्थात् स्वभाव की ऊर्जा और उसकी गुणवत्ता ही है जो इन्द्रियों के द्वारा जीव के सम्मुख इस प्रकार प्रकट होती है । और इन्द्रियों के अन्दर जो कुछ सार-तत्व है, परम आध्यात्मिक और अत्यंत सूक्ष्म है, वह तत्वतः वही वस्तु है जो वह सनातनी गुणवत्ता और शक्ति है । पर प्रकृति के अन्दर जो ऊर्जा या शक्ति है वह अपनी प्रकृति के रूप में स्वयं भगवान् ही हैं;  इसलिए प्रत्येक इन्द्रिय अपने विशुद्ध स्वरूप में वही प्रकृति है, प्रत्येक इन्द्रिय सक्रिय चेतना-शक्ति में स्थित भगवान् ही है ।

     इसी सिलसिले में जो पद आये हैं उनसे यह बात और अच्छी तरह से प्रकट होती है । ''मैं शशि और सूर्य की प्रभा, मनुष्य में पौरुष, बुद्धिमानों में बुद्धि, तेजस्वियों में तेज, बलवानों में बल, तपस्वियों में तप हूँ ।''  '' सब भूतों में मैं जीवन हूँ ।"

 प्रत्येक उदाहरण में उस असली गुण की ही ऊर्जा का संकेत किया गया है--ये सब भूतभाव जो कुछ बने हैं उसके लिए वे इसी शक्ति पर निर्भर हैं । वह मूलभूत गुण ही वह विशिष्ट लक्षण है जो समस्त भूतभाव की प्रकृति में भागवती शक्ति की सत्ता को लक्षित कराता है । भगवान् फिर कहते हैं,  ''सब वेदों में मैं प्रणव हूँ''  अर्थात् वह मूल ध्वनि हूँ जो श्रुत शब्द की समस्त सृष्टिशक्तिशाली ध्वनियों का मूल है । ॐ ही स्वर और शब्द की शक्ति का वह एकमात्र विराट् रूप है जिसमें वाक् और शब्द की समस्त आध्यात्मिक शक्ति और विकास-संभावना अन्तर्भूत और एकत्र है । इसी में ये सब शक्तियाँ समन्वित रहती और इसीमें से बाहर निकलती हैं । इसी में से वे अन्य ध्वनियाँ निकलती और इसीका विकास मानी जाती हैं जिनमें से भाषाओं के शब्द निकलते और बुने जाते है । इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है । इन्द्रिय, प्राण, ज्योति, बुद्धि, तेज, बल, पौरुष, तप आदि के बाह्य प्राकृत विकास परा प्रकृति की चीज नहीं हैं, बल्कि परा प्रकृति वह मूलभूत गुण है जो अपनी आत्मस्वरूप शक्ति में ही

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१.  ७. ८-११

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स्थित है और वही स्वभाव है । आत्मा की जो शक्ति इस प्रकार व्यक्त हुई है, आत्मचैतन्य की जो ज्योति तथा व्यक्त वस्तुओं में उसके तेज की जो शक्ति है वही अपने विशुद्ध मूल स्वरूप में आत्म-स्वभाव है । बह शक्ति, ज्योति ही वह सनातन बीज है जिसमें से अन्य सब चीजें विकसित और उत्पन्न हुई हैं । अन्य सब चीज इसीकी परिवर्तनशील और नमनीय अवस्थाएँ हैं । इसीलिए इस सिलसिले के बीच में गीता एक सर्वसामान्य सिद्धान्त के तौर पर यह बात कह जाती है कि, ''हे पार्थ, मुझे सब भूतों का सनातन बीज जानो ।''  यह सनातन बीज आत्मा की शक्ति, आत्मा की सचेतन इच्छा है, वह बीज है जिसे, गीता ने जैसा कि अन्यत्र बतलाया है कि, भगवान् महत् ब्रह्म में, विज्ञान-स्व-रूप महद् में आधान, स्थापित करते हैं और उसीसे सब भूतों की उत्पत्ति होती है । यही वह आत्मशक्ति है जो सब भूतों में मूलभूत गुण-रूप से प्रकट होती और उनका स्वभाव बनती है ।

    इस मूलभूत गणरूप शक्ति और अपरा प्रकृति का इन्द्रिय-मनोगोचर प्राकृत विकार अर्थात् विशुद्ध वस्तुतत्व और इसका अपर रूप, इन दोनों में जो यथार्थ भेद है, वह इस सिलसिले के अन्त में स्पष्ट रूप से दरसा दिया गया है । ''बलवानों का मैं बल हूँ कामरागविवर्जित''  अर्थात् विषयों के प्राकृत भोग-सुख से सर्वथा अनासक्त । ''प्राणियों में मैं काम हूँ धर्म के अविरुद्ध ।'' अब जो प्रकृति के इसके बाद उत्पन्न होनेवाले आंतरिक भाव हैं ( मन के भाव, कामना से उत्पन्न होनेवाले भाव, कामक्रोधादिकों के वेग, इन्द्रियों की प्रतिक्रियाऐं, बुद्धि के बद्ध और द्वन्द्वात्मक खेल, मनोभाव और नैतिक भाव में होनेवाले उलट-फेर), जो सात्विक, राजस और तामस हुआ करते हैं तथा प्रकृति के जो त्रिगुण-कर्म हैं वे, गीता कहती है कि, स्वयं परा प्रकृति के विशुद्ध भाव और कर्म नहीं हैं बल्कि उससे निकले हुए हैं;'  'र्है वे मुझसे ही--मत्त एव अर्थात् वे और कहींसे नहीं उत्पन्न हुए हैं,  ''पर मैं उनके अन्दर नही हूँ, वे मेरे अन्दर हैं ।'' यह सचमुच ही एक बहुत बड़ा पर सूक्ष्म भेद है । भगवान् कहते हैं, ''मैं मूलभूत ज्योति, बल, कामना, शक्ति, बुद्धि हूँ पर उनसे उत्पन्न होनेवाले ये विकार मैं निज स्वरूप से नहीं हूँ न उनमें मैं रहता हूँ, परन्तु फिर भी ये सब हैं मुझसे ही और मेरी ही सत्ता के अन्दर ।''  इसलिए इन्हीं वचनों के आधार पर हमें सब पदार्थों का पराप्रकृति से अपरा प्रकृति में आना और अपरा से पुन: परा को प्राप्त होना देखना होगा ।

     पहले वचन को समझने में कोई कठिनाई नहीं है । बलवान् पुरुष के अन्दर

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१. ७-१०

२. ७-१२

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बल तत्वगत भागवती प्रकृति तो है पर फिर भी बलवान् पुरुष कामना और आसक्ति के वश में हो जाता, पाप में गिर जाता और पुण्य की ओर जाने के लिए प्राणापण चेष्टा करता है । इसका कारण यही है कि वह अपने समस्त जीवन के कर्म करते समय नीचे उतरकर त्रिगुण की पकड़ में आ जाता है,  अपने कर्म को ऊपर से, अपनी असली भागवती प्रकृति के द्वारा नियंत्रि

 नहीं करता । उसके बल का दिव्य स्वरूप इन निम्न क्रियाओं से किसी प्रकार विकृत नहीं होता, समस्त अज्ञान, मोह और स्खलन के होते हुए भी वह मूलत: ठीक एक-सा ही बना रहता है । उसकी उस भागवती प्रकृति में भगवान् मौजूद रहते और उसी भागवती प्रकृति की शक्ति के द्वारा इस अपरा प्रकृति की अध:स्थिति की गड़बड़ी में से होकर उसे धारण करते हैं जबतक कि वह फिर से उस बीजभूत ज्योति को नहीं पा लेता और अपने स्वरूप के सच्चे सूर्य की ज्योति से अपने जीवन को पूर्ण रूप से प्रकाशित तथा अपनी पराप्रकृतिस्थ भागवती इच्छा की विशुद्ध शक्ति से अपने संकल्प और कर्म का नियमन नहीं करने लगता । यह तो हुआ, पर भगवान् 'कामना'  कैसे हो सकते हैं, जब कि इसी कामना को महाशत्रु कहकर उसे मार डालने को कहा गया है ? पर वह कामना त्निगुणात्मिका निम्नगा प्रकृति का काम है जिसकी उत्पत्ति रजोगुण से होती है, ''रजोगुणसमुद्धव:'' ;  और इसी अर्थ में हम लोग प्राय: काम शब्द का प्रयोग किया करते हैं । पर यह काम, जो एक आध्यात्मिक तत्व है, एक ऐसा संकल्प है जो धर्म के अविरुद्ध है ।

 

      क्या इस आध्यात्मिक काम का अभिप्राय पुण्य काम, नैतिक, सात्विक काम है--कारण, पुण्य की उत्पत्ति और प्रवृत्ति सदा सात्विक ही हुआ करती है ? परन्तु ऐसा मानने से स्पष्ट ही परस्पर-विरोध, 'वदतो व्याघात' का दोष आता है, क्योंकि इसके बाद के चरण में ही यह बात कही गयी है कि सब सात्विक भाव भी भगवद्रूप नहीं बल्कि निम्नजात विकार है । भगवान् के सान्निध्य में पहुँचने के लिए पाप का तो परित्याग करना ही पड़ता है, पर यदि भगवत्-स्वरूप में प्रवेश करना है तो उसी प्रकार पुण्य को भी पार कर जाना पड़ता है । पहले सात्विक तो बनना ही होगा, पर पीछे उसे भी पीछे छोड़कर आगे बढ़ना होगा । नैतिक सदाचार केवल चित्तशुद्धि का साधन है । इससे भागवत प्रकृति की ओर हम ऊँचे उठ सकते हैं, पर वह प्रकृति स्वयं ही द्वन्द्वातीत होती है,--और वास्तव में यदि ऐसा न होता तो विशुद्ध भागवत सत्ता या भागवत शक्ति किसी ऐसे बलवान् मनुष्य में कभी न रह सकती जो राजस कामक्रोध के अधीन होता है । आध्यात्मिक अर्थ में धर्म नीतिमत्ता या सदाचार ही नहीं है । गीता

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ने अन्यत्र कहा है कि धर्म वह कर्म है जो स्वभाव के द्वारा अर्थात् अपनी प्रकृति के मूलभूत विधान के द्वारा नियत होता है । और यह स्वभाव मूलत: आत्मा की ही अंत:स्थित चिन्मय इच्छा और विशिष्ट कर्मशक्ति का ही विशुद्ध गुण है । अतः काम का अभिप्राय यहाँ हमारे अन्दर रही हुई उस सहेतुक भगवदिच्छा से है जो निम्न प्रकृति के आमोद की नहीं बल्कि अपनी ही क्रीड़ा और आत्मपूर्णता के आनन्द की खोज करती और उसे ढूँढ निकालती है; यह जीवनलीला के उस दिव्य आनन्द की कामना है जो स्वभाव के विधान के अनुसार अपनी सज्ञान कर्म-शक्ति को प्रकट कर रहा है ।

 

       पर फिर इस कथन का क्या अभिप्राय है कि भगवान् भूतों में, अपरा प्रकृति के रूपों और भावों में, सात्विक भावों तक में नहीं हैं,  यद्यपि वे सब हैं उन्हीं की सत्ता के अन्दर ?  एक अर्थ से तो भगवान् का उनके अन्दर होना स्पष्ट ही अनिवार्य है, क्योंकि इसके बिना उन सब पदार्थों का रहना ही संभव नहीं हो सकता । अभिप्राय तब यही हो सकता है कि भगवान् की जो वास्तविक परा आत्मप्रकृति है उस रूप में भगवान् उनके अन्दर कैद नहीं हैं; बल्कि ये सब विकार उन्हीं की सत्ता में अहंकार और अज्ञान के कर्म द्वारा उत्पन्न होते हैं । अज्ञान में सभी चीजें उलटी दिखायी देती हैं और एक प्रकार की मिथ्या की ही अनुभूति होती हैं । हम लोग समझते हैं कि जीव इस शरीर के अन्दर है, शरीर का ही एक परिणाम और विकार है; ऐसा ही हम उसे अनुभव भी करते हैं;  पर सच तो यह है कि जीव के अन्दर शरीर है और वही जीव का परिणाम और विकार है । हम अपनी आत्मा को अपने इस महान् अन्नमय और मनोमय व्यापार का एक अंश-सा जानते हैं--अंगुष्ठ मात्र से अधिक बड़ा पुरुष को नहीं मानते; पर यथार्थ में यह सारा जगद्व्यापर चाहे जितना भी बड़ा क्यों न मालूम हो, यह आत्मा की अनन्त सत्ता के अन्दर एक बहुत छोटी-सी चीज है । यहाँ भी वही बात है; उसी अर्थ में ये सब भूतभाव भगवान् के अन्दर हैं, भगवान् उनके अन्दर नहीं हैं । यह त्निगुणात्मिका निम्न प्रकृति जो पदार्थों को मिथ्या रूप में दिखाती है और उन्हें निम्नतर रूप दे देती है, माया है । माया से यह मतलब नहीं कि वह कुछ है ही नहीं या उसका सारा व्यापार जगत् में असत् ही के साथ है बल्कि यह कि यह हमारे बोध को चकरा देती है, असली चीज को नकली रूप में सामने रखती है और हमारे ऊपर अहंकार, मन, इन्द्रिय, देह और सीमित बुद्धि का आवरण डाल देती है और हमसे हमारी सत्ता का परम सत्य छिपाये रहती है । भरमानेवाली यह माया हमसे उस भगवत्स्वरूप को छिपाती है जो हम हैं, जो हमारा अनन्त अक्षर आत्मस्वरूप है । इन विविध गुणमय भावों से यह सारा

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जगत् मोहित है और इससे इनके परे जो परम और अव्यय मैं हूँ उसे नहीं जानता । यदि हम यह देख सकें कि वही भगवत्स्वरूप हमारी सत्ता का वास्तविक सद्रूप है तो और सब कुछ भी हमारी दृष्टि में बदल जायगा, अपने असली रूप में आ जायगा और हमारा जीवन तथा कर्म भागवत अर्थ को प्राप्त होकर भागवती प्रकृति के विधान के अनुरूप प्रवृत्त होगा ।

 

     पर जब भगवान् ही इन सब चीजों में हैं और भागवती प्रकृति ही इन सब भरमानेवाले विकारों के मूल में मौजूद है और जब हम सब जीव हैं और जीव वही भागवती प्रकृति है तब क्या कारण है कि इस माया को पार करना इतना कठिन है, इतनी यह ''माया दुरत्यया"  है ? कारण यही है कि यह माया भी तो भगवान् की माया है, '' दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया''  (यह गुणमयी दैवी माया मेरी है ) । यह स्वयं दैवी है और भगवान् की ही प्रकृति का-अवश्य ही देवताओं के रूप में भगवान् की प्रकृति का--विकार है; यह दैवी है अर्थात् देवताओं की है या यह कहिये कि देवाधिदेव की है, परन्तु देवाधिदेव के अपने विभक्त आत्म-निष्ठ तथा निम्न वैश्व भाव अर्थात् सात्विक, राजस, तामस भाव की चीज है । यह एक वैश्व आवरण है जो देवाधिदेव ने हमारी बुद्धि के चारों ओर बुन रखा है; ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रने इसके ताने-बाने बुने हैं; परा-प्रकृतिरूपिणी शक्ति इस बुनावट के मूल में है और इसके एक-एक धागे में छिपी हुई है । हमें इस बुनावट का काम अपने अन्दर पूरा कर लेना है और इसमें से होकर, इसका उपयोग करके, इसे पीछे छोड़ आगे बढ़ना है, देवताओं से फिर-कर उन परम मूल स्वरूप देवाधिदेव को प्राप्त होना है जिनमें पहुँचने से ही हम देवताओं और उनके कर्मों का परम अभिप्राय तथा खास अपनी ही अक्षर आत्म- सत्ता के परम गुह्य आध्यात्मिक सत्यों को एक साथ जानेंगे । ''जो मेरी ओर फिरते और आते हैं वे ही इस माया को पार करते हैं--मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ।''

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१. ७-१३     २. ७-१४

३. ७-१४

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